कारगिल दिवस पर कहानी, एक फौजी की जुबानी

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जमशेदपुर: जांबाज लड़ाकों की जुबानी हवलदार मानिक वरदा 18 घंटे तक बर्फ में दबे रहे, हाथ-पैर गंवा दिए पर हौसला नहीं घटा, वायरलैस यूनिट में तैनात गौतम लाल ने भी पेश की जज्बे की मिसाल।अपने आवास पर लगातार इन से बात करते सेना के पूर्व हवलदार मानिक वरदा।26 जुलाई 1999 के दिन को देशवासी कभी नहीं भूल सकते ,इस दिन भारतीय रंगरूटों ने कारगिल फतेह की थी।देश प्रेम की भावना लेकर युवा सेना में जाते हैं, लेकिन जब बात कारगिल युद्ध की आती है तो जमशेदपुर के ये शख्स आपके रोंगटे खड़े करवा देंगे।जी हां, हम बात कर रहे हैं छोटा गोविंदपुर के बड़ाडुंगरी गांव के मानिक वरदा की। उनके आसपास के गांव में कोई ऐसा नहीं होगा जो उन्हें नहीं जानता। वे कारगिल वरदा के नाम से मशहूर हैं। उन्होंने युद्ध में देश के दुश्मनों की टोह लेने का फर्ज बखूबी निभाते हुए अपने दोनों हाथ व पांव गंवा दिए।उन्हें उसका गम नहीं है। देश प्रेम का जज्बा अब भी इतना है कि बंदूक मिले तो दुश्मनों के छक्के छुड़ा दें। उसी इलाके में राहड़गोड़ा के गौतम लाल ने भी युद्ध में कुछ ऐसी ही जिम्मेदारी निभाई। उनके कार्य क्षेत्र में जब बम के गोले गिरते थे, तो दहल जाते थे, लेकिन वे मैदान में डटे रहे. 22वें कारगिल विजय दिवस पर लगातार।इन इन योद्धाओं को सलाम करता है।

18 दिन तक बर्फ के नीचे दबे रहे, पर चलती रही सांसें, यह बात मानिक वरदा ने कही कि राजस्थान में पोस्टिंग के दौरान उन्हें बताया गया कि कारगिल चलना है।अगले दिन कारगिल पहुंच कर मोर्चा संभाला। पता तो था कि पड़ोसी मुल्क के साथ तनातनी है, लेकिन ऐसा होगा सोचा न था. 13 मई को वहां का रंग-रूप ही बदल गया. सुबह से गोलीबारी एयर बम, फाइटर प्लेन की आवाजें सुनाई देती थीं. एक जूनियर कमिश्नर, 13 जवानों के साथ रात्रि पैदल गश्ती कर दुश्मनों की टोह लेने की जिम्मेदारी उनपर थी. लड़ाई के अंतिम दिन गश्ती के वक्त हिम संकलन हुआ. मैं और चार साथी उसमें दफन हो गए. उनमें दो रांची व एक दुमका का है. 18 घंटे बाद हमें निकाला जा सका. इलाज चला. जब कारगिल फतेह की खबर आई तो उनमें नया जोश जगा. मातृभूमि की रक्षा का जुनून आज के युवाओं में होनी चाहिए. हाथ-पांव भले ही नहीं है, उसका गम नहीं है. हौसला अभी भी दुश्मनों के छक्के छुड़ाने का रखते हैं, बस बंदूक मिल जाए।

12 डिसमिल जमीन पर घर बनाया, 62 डिसमिल पर खेती करवाते हैं मानिक बकौल वरदा बचपन में घर के सामने से पुलिस गाड़ी गुजरती थी. उन्हें देखकर सोचा की सेना में जाऊंगा. 1980 में सोनारी कैम्प से भर्ती हुए. दानापुर में ट्रेनिंग की. ट्रेनिंग के 13 साल बाद हवलदार नियुक्त किए गए. कई राज्यों में घूमते हुए 1999 में देश के दुश्मनों से दो-दो हाथ करने का सौभाग्य मिला. वरदा बताते हैं कि पुणे के आर्टिफिशियल लिम्ब सेंटर में इलाज हुआ. सरकार की ओर से मिली भूमि पर उन्होंने 12 डिसमिल जमीन पर घर बनाया है और 62 डिसमिल जमीन पर खेती करवाते हैं. उनका बड़ा बेटा सुमित वरदा इंजीनियरिंग कर चुका है. छोटा तरुण कॉलेज में है.

पत्नी कहती हैं-आज भी आर्मी वाली ठाठ झाड़ते हैं-
कारगिल के दिनों की बातें करते-करते वरदा यादों में खो जाते हैं. आंखे नम हो जाती हैं. उनकी पत्नी सूरज मनी वरदा बताती हैं कि आज भी आर्मी स्टाइल में जीवन बिताते हैं. आर्मी वाली ठाठ झाड़ते हैं. अपना सारा काम खुद करते हैं. हम सोये रहते हैं और सुबह गांव का चक्कर लगा कर घर आ जाते हैं. मुझे अपने पति पर गर्व है कि वे देश के काम आए।

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