आंशिक रहा भारत बंद का असर, कई जगह बंद से बेपरवाह खेती में व्यस्त रहे किसान, कहा- आंदोलन रास्ता नहीं

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नई दिल्ली : केंद्र के नए कृषि कानूनों के विरोध में मंगलवार को किसान संगठनों के भारत बंद का आंशिक असर दिखा। वहीं कई क्षेत्रों में बंद से परवाह किसान अपनी खेती में व्यस्त रहे। उनका कहना था कि आंदोलन से नहीं, बात से रास्ता निकलेगा। संयुक्त किसान मोर्चा ने सफल बताया है। मोर्चे के सदस्य योगेंद्र यादव ने कहा कि वे अपनी मांगों पर अडिग हैं। जब तक तीनों कानूनों को वापस नहीं लिया जाएगा, उनका धरना जारी रहेगा।  अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हन्ना मोल्लाह ने कहा कि हम अपनी मांगों पर अडिग हैं। हमें कानून वापसी से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। हमारी मांगें नहीं मानी गईं तो हम अपने विरोध-प्रदर्शन को अगले स्तर तक ले जाएंगे।  मंगलवार को बंद के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों में भाकियू कार्यकर्ताओं समेत राजनीतिक दलों ने कई जगह जाम लगाया। प्रयागराज में आंदोलनकारियों ने आधे घंटे तक बुंदेलखंड एक्सप्रेस रोकी। बिहार में तो सड़कों पर सिर्फ विपक्षी दल के नेता-कार्यकर्ता नजर आए। किसान नदारद दिखे। कई जगह ट्रेनें भी रोकी गईं। शहर के अंदर दुकानें खुली रहीं और जनजीवन ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ।दिन भर खेती किसानी में व्यस्त रहे किसानछत्तीसगढ़ के रायपुर समेत अन्य शहरों में दुकानों और बाजारों को जबरन बंद कराया गया। इस बंद से बेखबर ज्यादातर किसान खेती-किसानी और धान बेचने में व्यस्त रहे। बंगाल में सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में बंद का थोड़ा-बहुत असर दिखा। झारखंड में बंद को सताधारी दल झामुमो और कांग्रेस का समर्थन था। इसके बाद भी खास असर नहीं दिखा। जिन किसानों के नाम पर यह आंदोलन किया गया था, वे इस आंदोलन से बेपरवाह रहे। दिन भर वे अपने खेतों में काम करते रहे, चाहे वो रांची हो या सुदूर पलामू या फिर संताल। साफ कहा, इस बंद से हमें कोई लेना देना नहीं। गुजरात में कहीं बसों के कांच तोड़े गये तो कहीं टायर जलाकर हाइवे को बंद करने का प्रयास किया गया। बंद की आंशिक स्थिति महाराष्ट्र और केरल में भी रही।

किसान हितों की फर्जी आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे राजनीतिक दल

जबरदस्तीॐॐ का सहारा लेकर कराए गए भारत बंद की नाकामी के बाद किसान हितों की फर्जी आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे दलों को यह आभास हो जाए तो बेहतर कि वे किसानों को सड़कों पर उतारकर अपनी फजीहत ही करा रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में यदि किसी राजनीतिक दल की सबसे अधिक फजीहत हो रही है तो वह है कांग्रेस। अपनी इस फजीहत के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। कांग्रेस अपने नेताओं के बयानों और यहां तक कि अपने उस घोषणापत्र से मुंह नहीं चुरा सकती जिसमें वैसे ही कृषि सुधारों को आगे बढ़ाने पर बल दिया गया था जैसे सुधार तीन नए कृषि कानूनों के जरिये किए गए हैं।
कांग्रेस किस तरह कुतर्क की राजनीति करने पर आमादा है, इसका ताजा और शर्मनाक प्रमाण हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का यह बयान है कि उनकी पार्टी कृषि क्षेत्र में सुधारों के खिलाफ नहीं है, लेकिन नए कृषि कानून वापस लिए जाने चाहिए। आखिर यह क्या बात हुई? इसे कुतर्क और राजनीतिक पैंतरेबाजी के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि नए कृषि कानूनों को रद कर उन्हें नए सिरे से बनाने की मांग की जाए? क्या इसका यही मतलब नहीं कि कहीं न कहीं खुद कांग्रेस कृषि सुधारों की आवश्यकता महसूस कर रही है?  बेहतर हो कि किसान संगठन कांग्रेस, राकांपा और तृणमूल कांग्रेस सरीखे मौकापरस्त दलों के असली चेहरे की पहचान करें और यह समझें कि इन दलोें का उद्देश्य उनकी आंखों में धूल झोंकना ही है। यदि नए कृषि कानूनों में कहीं कोई खामी है तो उस पर बात करने में हर्ज नहीं। खुद सरकार भी इसके लिए तैयार है, लेकिन इसका कोई तुक नहीं कि कृषि कानूनों को रद करने की बात की जाए। इस तरह की बातें कुल मिलाकर किसानों का अहित ही करेंगी, क्योंकि खुद किसान भी यह अच्छी तरह जान रहे हैं कि पुरानी व्यवस्था को अधिक दिनों तक नहीं ढोया जा सकता। उचित यह होगा कि किसान संगठन कांग्रेस सरीखे दलों से पल्ला झाड़कर अपने हितों की चिंता करें और इस क्रम में यह देखें कि किसी भी क्षेत्र में सुधार एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं और समय के साथ व्यवस्था सही आकार लेती है। विभिन्न क्षेत्रों में किए गए आर्थिक सुधार यही बयान भी कर रहे हैं।किसानों के हितों की फर्जी आड़ लेकर अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों को पूरा किया जा रहा है।मोदी सरकार ने नए कृषि कानूनों के जरिये देश के किसानों के हितों की दिशा में उठाया क्रांतिकारी कदमकिसानोें को अपने हितों की चिंता करते समय इस पर भी गौर करना होगा कि उन्हें अपने दूरगामी हितों की रक्षा को अधिक प्राथमिकता देनी होगी। किसी भी क्षेत्र में किए जाने वाले सुधार प्रारंभ में कुछ कठिनाइयों को जन्म देते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सुधारों को अपनाने से बचा जाए और अप्रासंगिक नियम-कानूनों और तौर-तरीकों को बनाए रखने की जिद पकड़ ली जाए।

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